hindisamay head


अ+ अ-

विमर्श

विकास बैंक की ई.एम.आई.-याँ

आरती


क्या किसी बहुराष्ट्रीय निवेशक कंपनी के मामले विदेश मंत्रालय के मामले होंगे? वे विदेश नीति को प्रभावित करेंगे?

एनडीए के दौर में, अमेरिकी राजदूत राबर्ट ब्लैकविल ने प्रधानमंत्री के खास सलाहकार बृजेश मिश्रा के सामने कोकाकोला की परेशानी को रखा। अमेरिकी चिंताओं को (कोकाकोला के प्रति) जाहिर किया कि - सबसे बड़ी पूँजी निवेशक कंपनी की मदद सरकार को करनी चाहिए।

स्थानीय लोगों, पर्यावरणविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के खासे विरोध के बाद भी देश में 57 प्लांट कोकाकोला के लगाए जा चुके हैं। अभी 2011-12 में उत्तराखंड में देहरादून की विकासनगर तहसील के गाँव छबरा में 57वें प्लांट को मंजूरी मिली। यह 600 करोड़ रुपए का प्लांट है। कंपनी ने दावा किया कि वह एक हजार लोगों को रोजगार देगी।

कुछ विरोध-दास्तानों पर एक नजर

उत्तरप्रदेश में वाराणसी जिले के पास मेंहदीपुर में 1999 से विरोध हो रहा है। जब प्लांट लगना शुरू हुआ था। अब कंपनी 50 हजार घन मीटर से बढ़ाकर ढाई लाख घन मीटर पानी की माँग का प्रस्ताव सरकार से कर रही है।

केरल के प्लाचीमाडा प्लांट में माइनिंग के अनुसार कोकाकोला कंपनी रोज 15 लाख लीटर पानी निकालती थी। खेती और पारिस्थितिकी लगभग तबाह हो चुकी थी। लेकिन केरल का इतिहास अन्य राज्यों से थोड़ा अलग है। हाईकोर्ट ने दखल दिया और कहा कि पानी न तो कोकाकोला का है न ही सरकार का जो प्लांट लगाने की मंजूरी देती है। कंपनी ने भारी मुआवजा दिया। प्लांट भी बंद हो गया।

लेकिन तब तक सब कुछ बर्बाद हो चुका था। प्राकृतिक संसाधनों की लूट, 15 लाख लीटर पानी हर रोज निकालना यानी धरती को खाली कर देना। इस कीमत पर हमारे देशवासी कोकाकोला और पेप्सी के चार दर्जन से अधिक प्रोडक्ट इस्तेमाल करने के आदी होते जा रहे हैं। कुछ प्रतिशत लोग अपने कंठों को तर कर रहे हैं और इन प्लांटों के आसपास रहने वाले लोगों के कंठ सूखते जा रहे हैं। ये स्थितियाँ पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, राजस्थान, उत्तरप्रदेश सभी जगह समान हैं। सभी जगह स्थानीय लोगों और स्वयंसेवियों द्वारा विरोध किया जाता है और कंपनी और उसकी हिमायती राज्य सरकारें, उन स्वरों को दबा देती हैं।

पानी की समस्या के साथ ही इन प्लांटों से कई और नुकसान हैं। यहाँ से क्रोमियम, लैड, कैडमियम जैसे पदार्थों का तय सीमा से अधिक मात्रा में रिसाव होता है। कई स्वतंत्र जाँचों और सेंटरग्राउंड वाटरबोर्ड (केंद्र सरकार) के आँकड़े भी भू जल दोहन और पारिस्थितिकी के सवालों को खड़ा करते हैं।

19वीं सदी के अंत में अमेरिका के अटलांटा में सेवानिवृत्त फौजी जॉन पामबर्टन ने सिरदर्द और थकान से निजात पाने के लिए एक दवा की खोज की - कोकाकोला सॉफ्ट ड्रिंक। यह पेय 1886 में बाजार में दवा के रूप में ही आया। यह वही प्रतीक वर्ष था जब अमेरिका के न्यूयार्क में 'स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी' (स्वतंत्रता का प्रतीक) का निर्माण किया जा रहा था। एक और प्रतीक तभी जॉन पामबर्टन ने रचा। 1956 में यह कंपनी भारत आई। उस समय देश में विनिमय कानून नहीं था। तब उसके पास अपना सौ प्रतिशत स्वामित्व था। 1974 में व्यापार विनिमय कानून बना और कोक को 40 फीसदी के साथ रहने का आदेश दिया गया। वह नहीं मानी और 1971 में वह चली गई। लेकिन नब्बे के दशक में, नवउदारवाद के दौर में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुनाफे में आड़े आनेवाले कानूनों को ही रफा-दफा कर दिया गया। 51 फीसदी विदेशी स्वामित्व का कानून बना। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को और भी रियायतें मिलीं। सब्सिडी वाली जमीन, बिजली, पानी। दुनिया का सबसे लोकप्रिय ब्रांड कोकाकोला 1993 में वापस लौटा। पूरे जोश-खरोश और आक्रामकता के साथ।

नवउदारीकरण के बाद यानी 90 के बाद, भारत समेत तीसरी दुनिया के देशों की कमोबेश हालात एक सी हैं। विकास और निवेश की बहसों के पीछे जन सरोकार के प्रश्नों को पीछे धकेल दिया जाता है। कोई आवाज यदि उठी भी तो उसे दबाने के अनेक उपाय भी हैं। आज हमारे देश की तरक्की का ढाँचा यही बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ निश्चित कर रही हैं। सभी दल तरक्कीपसंद हैं। निवेश के किसी भी अवसर को किसी भी कीमत और मुआवजे के साथ सरकारें निगल जाने की हड़बड़ाहट में दिखती हैं। 12-13 साल की उमर के उत्तराखंड का उदाहरण देखें - यह प्रदेश जो प्राकृतिक भूजल का भंडार है। नदियों, पहाड़ों, वनों का प्रदेश है। अब निवेशकों की पहली पसंद बना हुआ है। इन 12 सालों में उत्तराखंड में सात मुख्यमंत्री रहे। अलग-अलग सरकारें आती-जाती रहीं पर ऊर्जा परियोजनाओं और अन्य निवेशों पर सभी की राय लगभग एक थी। श्रीनगर जल परियोजना जिसका निर्माण उत्तराखंड में हो रहा है। यह परियोजना अपने अमलीजामे में गंगा नदी को 30 किमी लंबे सड़ांध भरे जलाशय में बदल देगी। पूरे पूर्वोत्तर भारत में आठ प्रांतों में 157 पन बिजली परियोजनाएँ चल रही हैं। इनमें 30 राज्य सरकारों, 13 केंद्र सरकार और 114 परियोजनाएँ निजी (विदेशी-स्वदेशी) कंपनियों द्वारा संचालित हैं (द हिंदू : 2 जून 2012 के अनुसार)। विश्वस्त सूत्रों की एक खबर यह कि उत्तराखंड में 500 से अधिक पनबिजली परियोजनाओं के बारे में सरकार सोच रही है। भागीरथी, मंदाकिनी, भीलांगना, विष्णुगंगा, धौली (पूर्वी-पश्चिमी), गौरी, सरयू, टोंस कोई भी नदी इन परियोजनाओं के निशाने से नहीं बची। रैणी के जिस जंगल को गौरा देवी और उनकी बहिनों ने 1974 में कटने से बचा लिया था, वही घाटी आज सबसे अधिक उपभोग का शिकार बन गई।

निरंतर विवादों से घिरे टिहरी बाँध को ही देखें तो सिंधु, तीस्ता, अलकनंदा, भागीरथी, सतलज-सुवर्णगिरी हर नदी इसकी गिरफ्त में आ चुकी हैं। कई जनांदोलनों के भारी विरोध के बाद भी 2006 में फेस-एक बनकर तैयार हो गया।

जनमत बनाने के प्रचार अभियान में कहा गया कि 2400 मेगावाट बिजली बनकर तैयार होगी लेकिन 300 मेगावाट ही असलियत में बन पाई। कम वर्षा में उत्पादन और भी कम हो जाता है। खेती की जो भी थोड़ी सी जमीन इस राज्य के पास थी उसका बड़ा हिस्सा डूब में आ गया। और बड़ी जमीन, बड़ा विस्थापन, पारिस्थितिकी हानि झेलने के बाद रोजगार के आँकड़े ऐसे नहीं कि इन सबकी भरपाई (कमोबेश सरकार की भाषा में) हो सके।

निजीकरण की माँग और राजनैतिक-प्रशासनिक स्वार्थों के इस दौर में प्राकृतिक संसाधनों को बचाने में नहीं संसदीय दिलचस्पी उन्हें बेचने में है। सरकार के पास सर्व जनहितकारी दृष्टिकोण को समझने के विकल्प हैं लेकिन वे उन पर बात नहीं करना चाहते। लोकतांत्रिक ढाँचे की जिसमें सभी को अपनी बात कहने का पूरा हक है। विरोध करने का भी हक है। लेकिन ऐसी योजनाओं-परियोजनाओं के विरोध में उतरे लोगों के साथ कैसी बदसलूकी की जाती है, इसके एक नहीं अनेक उदाहरण हैं। बुंदेलखंड में अभी हाल में ही लोगों ने नर्मदा नदी बाँध परियोजना के विरोध में जल सत्याग्रह किया। सरकार ने उनकी चिंताओं का निराकरण न करके, सप्ताह-दस दिन तो उनकी ओर ध्यान ही नहीं दिया। और जब प्रशासन को लगा कि स्थिति खतरनाक हो जाएगी। किसी की मृत्यु भी हो सकती है तो उन्हें जबरन हटाया गया। जेलों में डाला गया। एकाध अखबारों ने दो-एक दिन यह खबर 9-10 नंबर के पेज पर छापी। सपाट बयानी या यूँ कहे सूखी खबर की तरह। उत्तराखंड में भी, गढ़वाल में भरत झुनझुनावाला और उनके साथियों के ऊपर नियोजित हमला 22 जून 2012 को किया गया। यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें व्यक्ति को अपनी बात कहने का हक नहीं! जो लोग इन परियोजनाओं के समर्थन में अपनी दलीलें और विज्ञापन दे रहे हैं, उन्हें अपनी बात कहने दी जा रही है तो फिर विरोध क्यों नहीं? जनमत संग्रह क्यों नहीं कराया जाता कि जनता की राय इन विकास कार्यों को लेकर क्या है? इसी बीच एक और खास उदाहरण सामने आया। उत्तराखंड में एक कवि, एक जाने माने पत्रकार और एक एन.जी.ओ. के मालिक ने मिलकर बाँधों के समर्थन का बीड़ा उठाया। इसकी भाषा शासन की भाषा थी। इन्होंने अपने 'पद्मश्री' सम्मान छोड़ने और भूख हड़ताल में बैठने की घोषणा भी की। इसी बीच भरत झुनझुनावाला पर हमला करने वाले चार व्यक्तियों को सम्मानित किया गया। उत्तराखंड सरकार के तत्कालीन एक मंत्री ने बाँध अधिकारों की सुरक्षा के मामलों को लेकर दिल्ली में केंद्र सरकार के सामने अनशन भी किया। उत्तराखंड की जमीन किसी फिल्म का ट्रेलर लग रही है। जहाँ कॉमेडी, ट्रेजडी, एक्शन, ड्रामा, नायक-खलनायक सब रहे। आखिर में यहाँ भी जीत विकास के दलालों की हुई। कोई धर्म, पुण्य, अच्छाई की नहीं। गंगा-गंगा का जाप करने वाले साधु-सन्यासी, पूरी भौगोलिकता, पारिस्थितिकी को समझने वाले वैज्ञानिक, बौद्धिक सब एक साथ हो लिए। जिस तरह से विदेशी निवेश की आड़ में विकास की विनाशकारी गतिविधियाँ बढ़ रही है ठीक उसी मात्रा में हमारी दुनिया-देश-प्रदेश में सरकार-समाज मीडिया में दलालों की संख्या बढ़ रही है। मीडिया जिस प्रकार गलत खबरें, आँकड़े और अवैज्ञानिक सोच परोसता है उसी का नतीजा है कि सही तथ्यों की ओर सरकार को सोचने की जरूरत नहीं महसूस होती। बात यदि बिजली की है, विकास की है तो भरत झुनझुनावाला और अनेक वैज्ञानिक, पर्यावरणविदों की राय पर सरकार को ध्यान देना चाहिए। उनके अनुसार जलविद्युत परियोजनाओं के वर्तमान डिजायन में बदलाव होना चाहिए। पूरी नदी में बाँध बनाने की जगह, नदी के प्रवाह के एक हिस्से को ही रोककर, इसी हिस्से से बिजली तैयार करनी चाहिए। बाकी का पानी बहता रहेगा। जिससे तलौंछ (सेंडिमेंट, मछलियों का भोज्य पदार्थ है। यह तटीय क्षेत्र में पोषक तत्वों को बढ़ाता है) का प्रवाह बना रहेगा और मछलियाँ भी। ये दोनों ही चीजें नदियों के जीवन के लिए बेहद जरूरी हैं। इस प्रकार से बिजली की कीमत चार रुपए से बढ़कर पाँच रुपए हो जाएगी लेकिन नदियों का जीवन, पर्वतों का, पूरे पर्यावरण और मनुष्य का भी जो 90 फीसदी खतरे में है, वह सुरक्षित हो जाएगा। ऐसी रियायत वाली कई योजनाएँ सक्रिय हैं जैसे - हरियाणा में यमुना पर, अलास्का की ताजीमीनिया जलविद्युत परियोजना और भी कई हैं जो पर्यावरण को नुकसान पहुँचाए बिना बिजली पैदा कर सकती हैं। भरत झुनझुनावाला ने अपनी किताब जिसमें सारे नफे-नुकसान, उपाय विस्तार से हैं, उसे भारत सरकार, उत्तराखंड सरकार के सभी संबंधित उपक्रमों, आयोगों को भेजी लेकिन उस पर कोई चर्चा नहीं की गई। वजह कि सरकारें अपने निजी स्वार्थ भरे अनुबंध कंपनियों से कर चुकी होती हैं। बस एक ही टैगलाइनें कि उन्हें उन मतों, उस जनता के जीवन की, उस पर्यावरण की जिसमें वे खुद भी रह रहे हैं, बिल्कुल परवाह नहीं। बिल्कुल किसी तानाशाह की तरह। अभी मध्यप्रदेश के उज्जैन में सिंहस्थ मेले का आयोजन होने जा रहा है। केंद्र सरकार ने 200 करोड़ रुपए व्यवस्था के लिए राज्य सरकार को दिए। उनका अपना भी एक अलग ही बजट है। क्या यहाँ उज्जैन की विलुप्तप्राय क्षिप्रा नदी पर चर्चा होगी? कई प्रदेशों को साँसें देने वाली नर्मदा नदी में बढ़ते प्रदूषण, बाँधों के बाद के दुस्प्रभाव को लेकर चर्चा होगी? ऐसा कुछ भी नहीं होगा। आज हमारे साधु-संन्यासियों की कथित बौद्धिक, धार्मिक मान्यता में पत्थर, मूर्तियाँ ही बची हैं। प्रकृति और परमात्मा में से परमात्मा ही शेष है (जिसे वे कभी जान भी नहीं सकते) प्रकृति नदारत है। वरना इनकी ही संख्या काफी है नदियों को बचाने के लिए। यह सब सिंहस्थ, कुंभ और गंगा बचाओ, नर्मदा बचाओ अभियान या गंगा स्पर्श अभियान जैसे तमाम प्रपंच और तमाशे केवल शासन और प्रशासन के कर्ताधर्ताओं के लिए जेबें भरने का मौका है और माननीय साधु-संतों के लिए अपनी कीर्ति फैलाने का सुनहरा अवसर। ये सब नदियों को बचाने, बचाए रखने के प्रयोजन बिल्कुल भी नहीं हैं।

देश की सबसे बड़ी, गहरी और सबसे अधिक राज्यों को समृद्धि एवं जीवन देने वाली गंगा नदी की शुद्धता, पवित्रता को बनाए रखने के लिए पिछले 30-35 सालों से प्रयास चल रहे हैं। 1995 में 'केंद्रीय गंगा प्राधिकरण' की स्थापना की गई। 1986 'गंगा कार्य योजना' जिसे 2009 में 'गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण' कहा गया। पहले यह जिम्मेदारी (1979 तक) 'केंद्रीय जल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड' करता था। गंगा प्राधिकरण को पहले चरण में 350 करोड़ रुपए का बजट दिया गया था। फिर दूसरे चरण में 615 करोड़ रुपए दिए। अभी भी वर्तमान केंद्र सरकार ने सत्ता सँभालते ही गंगा... गंगा... कुछ दिन जपे। आला नेताओं, संतों, अधिकारियों का फाइव स्टार होटलों में मीटिंग, सेमिनार के दौर चले और गंगा साफ हो गई। निर्मल हो गई। उमा भारती जैस संत राजनेताओं का काम खत्म। फिर जब ओहदों के लिए, सत्ता कमान के लिए जरूरत होगी, जाप शुरू हो जाएगा। आर्थिक स्वार्थ, पद लिप्सा से बड़ा न कोई सामाजिक कार्य होता है न सांस्कृतिक न आध्यात्मिक। ऐसे मिशनों को जब तक जन सहयोग और जागरूक सोच का संगठित स्वर नहीं दिया जाएगा तब तक छिटपुट विरोधों के ऊपर सत्ता की बेबुनियादी लिप्सा जीतती रहेगी। एक उदाहरण और जिसे अभी हाल में मंजूरी मिली 'जैतापुर परमाणु संयंत्र' को लें। काफी मशक्कतों के बाद केंद्र सरकार ने अमेरिका से दोस्ती गहरी की और तोहफे में उसे यह संयंत्र मिला। (वैसे यह तोहफा अमेरिका का ही है जिसे वह दक्षिण एशिया में साइलेंट परमाणु की तरह इस्तेमाल करेगी)। 9990 मेगावाट की यह भारी योजना परमाणु ऊर्जा का दुनिया का सबसे बड़ा संयंत्र है। पर्यावरणविदों का कहना है कि - परमाणु कचरे और राख से पर्यावरणीय सौंदर्य और जैव विविधता (कोंकण और आसपास) नष्ट हो जाएगी। यहाँ से निकलने वाला अपशिष्ट पाँच लाख लीटर पानी जो समुद्र में छोड़ा जाएगा, उससे समुद्र का तापमान बढ़ जाएगा। मछली व्यवसाय प्रभावित होगा। भूकंप आने की संभावनाएँ और बढ़ेंगी। वैसे भी यह इलाका भूकंप प्रभाव के जोन चार में आता है। अभी तक यहाँ नब्बे से अधिक छोटे-बड़े झटके आ चुके हैं। इस परमाणु संयंत्र से निकलने वाले 300 टन परमाणु कचरे का डिस्पोज कैसे होगा? यह प्रश्न पूरी दुनिया के सामने मुँह बाए खड़ा है। आज जबकि जर्मनी और जापान जैसे देशों ने अपने परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को बंद करना शुरू कर दिया है। जर्मनी ने 17 में से 11 संयंत्रों को बंद कर दिया। 2022 तक वह सभी संयंत्रों को बंदकर ऊर्जा के अन्य विकल्पों के बारे में शोध कर रही है। ऐसी स्थितियों में भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश में दुनिया के सबसे बड़े संयंत्र को कार्यरूप देना चाहिए? आज जबकि सौर ऊर्जा के उपयोग की सबसे अधिक जरूरत है ऐसे में जन-जीव-पारिस्थितिकी को संकट में डालना? यूपीए सरकार के समय से इस योजना पर चर्चा चल रही है तभी लोगों ने विरोध किया था और उन पर सरकार ने गोलियाँ भी चलवाई थीं।

विकास और उत्पादन दोनों प्रक्रियाएँ जरूरी हैं किंतु यहाँ मनुष्य को यह ज्ञान होना चाहिए कि कैसा विकास और कितना उत्पादन? आज पूरी पृथ्वी संकटग्रस्त है - मौसम परिवर्तन, समुद्र का अम्लीकरण, ओजोन परत का क्षय, नाइट्रोजन एवं फास्फोरस चक्र का संकट, विलुप्त होती जैव प्रजातियाँ, रासायनिक प्रदूषण आदि। ये बिगड़ते तंत्र हमें मजबूर करते हैं कि एक बार नए सिरे से पुनः हम प्रकृति और मनुष्य के संबंधों को परिभाषित करें। उत्पादन और विकास यदि इन खाँचों में नहीं जम सका तो विकास नहीं विनाश होगा, जैसे कि परिणाम सामने आ रहे हैं। पूँजीवाद की आलोचना इसीलिए सैद्धांतिक स्तर पर ही होनी थी क्योंकि उसने प्रकृति का दोहन किया, निचोड़ लेने की हद तक जाकर। मार्क्स के शब्दों में - 'पूँजीवादी उत्पादन... मनुष्य और धरती के बीच नैसर्गिक अंतक्रिया को अस्त-व्यस्त कर देता है अर्थात भोजन और कपड़े के रूप में मनुष्य धरती के जिन तत्वों का उपयोग करता है, उन्हें वापस धरती में लौटने से रोकता है। उन शर्तों का उल्लंघन करता है जो धरती के सदा उपजाऊ बने रहने के लिए आवश्यक हैं।' यह तो केवल पूँजीवाद पद्धति को समझने की एक सरल पंक्ति थी। अब उत्तर पूँजीवाद का दौर चल पड़ा है। पूँजीवाद अपने विध्वंसक रूप में। वह प्रकृति का न केवल दोहन करता है, दोहन से अधिक मौजूदा प्रकृति का नाश भी करता है। कोकाकोला और पेप्सी जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ देश में 100 से अधिक उत्पादन केंद्र। यदि इनका एक केंद्र 15 से 20 लाख लीटर पानी का उपयोग रोज करता है तो सोचिए एक दिन में भूजल का कितना दोहन हुआ, उत्तराखंड जैसे राज्य में 400 से अधिक पन बिजली परियोजनाएँ होंगी तो केवल पूर्वी मध्य भारत में करीब 2000 योजनाओं की भविष्योगामी योजना है। ये सभी स्वस्थ नदियों को गंदे पानी के नाले में बदल रही हैं। एक 'जैतापुर परमाणु संयंत्र' रोज समुद्र में पाँच लाख लीटर अपशिष्ट पानी मिलाएगा? कुल मिलाकर सारे कारक जल और पारिस्थितिकी संकट के वाहक है। जो आगे वायुमंडलीय संकट को और भी गहरा करेंगे। हिमालय से निकलने वाली नदियों का बिगड़ा स्वरूप वायुमंडलीय असंतुलन से पिघलते ग्लेशियर ही अभी हाल में हुई नेपाल की त्रासदी का कारण है। प्रकृति अपने दोहन का बदला लेती है। कहाँ पर लेगी, कब और किस तरह, यह सब उसकी मरजी पर निर्भर करता है। हमारे बनाए यंत्र हमारी पूर्ण विजय नहीं है। ऊर्जा को बेचने-खरीदने का माध्यम बनाने की बजाय यदि लघुस्तर पर ऊर्जा स्रोतों पर काम किया जाए तो बेहतर परिणाम होंगे। सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा ही हमारे अगले विकल्प हैं। उन पर फोकस करना चाहिए। उत्पादन यदि सामुदायिक लाभ पर केंद्रित है तो विकास है। पूँजीवादी उत्पादन और विकास की पूरी अवधारणा केवल लाभ पर केंद्रित है। किसी भी स्तर पर लाभ। कोई भी कीमत देकर।

पिछले 30 सालों से भारत भी पूँजीवाद और हद तक उत्तर पूँजीवाद के खाँचे में सटीक बैठता जा रहा है। जल, जंगल, जमीन तक में बहुराष्ट्रीय निगमों का निवेश अधिक से अधिक सरकारों का उद्देश्य है। सरकारों का दोगला चरित्र-एक ओर वे पत्थर की मूर्तियों के लिए जनसंहार करवा रही हैं दूसरी ओर समूचे देश को, एक-एक चीज को गिरवी रखती जा रही हैं। जलवायु, पर्यावरण, कृषि जमीन, जिन पर पूरी दुनिया का ही जीवन निर्भर है आश्चर्य तो यह कि अब ये वैश्विक बहस के विषय नहीं रहे।

ऐसे दौर में हमारी सरकार की मूलभूत चिंताएँ कोकाकोला, पेप्सी और दर्जनभर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सहूलियतें ही होंगी। जिन्हें वे किसी भी कीमत पर रोककर रखना चाहेंगी। हद दर्जे के बुर्जुआ विकासवाद की लहर देश में फैलाई जा रही है।

पाब्लो नेरूदा की 'स्टैंडर्ड ऑयल कंपनी' शीर्षक से कविता है -

     न्यूयार्क के उनके थुल-थुल बादशाह लोग

     मुस्कुराते हत्यारे हैं / जो खरीदते हैं रेशम, नायलॉन सिगार

     है छोटे-मोटे आततायी और तानाशाह

     वे खरीदते हैं देश, लोग, समंदर, पुलिस, विधानसभाएँ...


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में आरती की रचनाएँ